Monday, December 5, 2011

गिलहरी


पेड़ की छाँव में.. गिलहरी को खाते देखा,

हरियाली घास से कुछ उठाते देखा..

रहा गया मुझसे... मै उसके पास गया,

पास पाकर देख मुझे.. उसको भय का ज्ञात हुआ!!

भागना चाहती थी.. लेकिन भाग सकी,

क्योंकि मैंने पुचकारते हुए खाने का सामान दिया...

खाकर जैसे मदहोश हुई, मेरी आहट की भी फिकर हुई..,

आपस मे खेलते रहे और, चंद लम्हों मे जैसे दोस्त बने...

यकीं नही होता दिल को वो लम्हा याद करके...

क्या वो मेरा इंतजार करते होंगे..?

-विवेक कुमार

Thursday, September 15, 2011

Saturday, August 20, 2011

Captured by me. (at Rishikesh)

कुछ यूं ही!


तुम गुनगुनाती हुई निकली नहाकर,
जुल्फों से छिटकते वो मोती समान पानी की बुँदे,
जो चेहरे को खुबसूरत बनाकर निगाहों से दूर हो गये,
'गहनों' की चमक भी फीकी हो गयी 'गजरा' लगाने के बाद,
मेरी निगाह तलाश रही तुम्हे इस ख़्वाब के बाद l



मैंने देखा है l


कौन कहता है, कि सूरज पूरब से बढ़ता है?

मैंने, उसे पाताल से निकलते देखा है l




लोग कहते है, क्या किया जिंदगी में?

पर मैंने, अपने को बचपन से देखा है l




माना कि, कीचड़ में कमल खिलता है l


पर पानी, निरंतर बना रहता है l






जिंदगी के, उतार-चढाव को सबने देखा!


पर मैंने, लड़ना सीखा है l






लोग, पैसो से कैरियर बनाते है !


मैंने, सड़क से उठते आदमी को देखा है l






विश्व का उच्च संविधान होते हुए भी !

धर्म, जाति, आरक्षण पर लड़ते देखा है l





सरकार संसद में बजट पेश करती है l

पर मैंने गरीब से महंगाई पर जीतना सीखा है l

-विवेक कुमार